स्वामी दयानंद सरस्वती जीवन परिचय 2023

स्वामी दयानंद सरस्वती जीवन परिचय 2023

स्वामी दयानंद सरस्वती जीवन परिचय 2023 प्रारंभिक जीवन

 स्वामी दयानंद सरस्वती जी अपने महान कार्यों द्वारा एवं महान व्यक्तित्व के कारण लोगों के हृदय में आज भी विराजमान है। दयानंद सरस्वती जी गणना महान संतों में की जाती है। जिन्होंने देश में चल रहे थोड़ी रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, दहेज प्रथा, बाल विवाह एवं विभिन्न प्रकार के आडंबरों का विरोध किया।

 उन्होंने हिंदू धर्म उत्थान के लिए अनेक प्रकार के कार्य के किये। इसके अलावा हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने में स्वामी दयानंद सरस्वती जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म सन 1824 में गुजरात राज्य के मोरबी क्षेत्र के टंकरा नामक गांव में हुआ था।

 स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म मूल नक्षत्र में होने के कारण इनका नाम मूलशंकर रखा गया। उनके पिता का नाम करशन जी लालजी तिवारी था और उनकी माता जी का नाम यशोदाबाई था।

जो धार्मिक एवं घरेलू महिला थी। उनके पिता कर कलेक्टर होने के साथ-साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर एवं समृद्धशाली व्यक्ति थे। स्वामी दयानंद सरस्वती जी बचपन का नाम मूल शंकर था।

 शिक्षा 

जो बचपन से बहुत ही तेज बुद्धि एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। उनका परिवार में ब्राह्मण होने के कारण धार्मिक पूजा-पाठ होता रहता था। जिससे बचपन में हीं उन्होंने रामायण, वेद,शास्त्रों आदि का अध्ययन कर लिया था।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा लगभग घर पर ही हुई है। 14 साल की उम्र में ही उन्होंने सामवेद,यजुर्वेद तथा संस्कृत व्याकरण का सम्पूर्ण अध्ययन कर लिया था। 

 सन्यास 

 उनके पिता धार्मिक परंपरावादी व्यक्ति थे। जिसके कारण वह चाहते थे कि उनका पुत्र धार्मिक परंपरा का अनुसरण कर उसे आगे बढ़ायें। उनके पिता ने 14 वर्ष की आयु में ही पहला शिव रात्रि का व्रत रखवाया और रात्रि जागरण करने को कहा। व्रत पिता के आदेश रखा था।

 व्रत का महत्व एवं कथा को सुनकर धार्मिक उत्साहपूर्ण वातावरण में बालक के मन में श्रद्धा भाव ने जन्म लिया। रात्रि के जागरण में रात्रि के वातावरण में बालक मूलशंकर की दृष्टि शिव मूर्ति एवं शिवलिंग पर टिकी थी। उनके पिता ने जिन्हे शक्ति का प्रतीक बताया था।

 जब मूलशंकर आशा थी भगवान आएंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे और उन्होंने देखा कि शिवजी को के रखे भोग को चूहें खा रहे है। यह सोचकर उन्हें आश्चर्य हुआ है और सोचने लगे कि जो भगवान स्वयं को चढ़ाए गए प्रसाद का रक्षण नहीं कर सकता है वह हमारी एवं मानवता की क्या रक्षा करेगा। और उनके मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा भाव खत्म हो चुका था।

इस पर उन्होंने अपने से बातचीत एवं चर्चा की। और और उनमें और उनके पिता के बीच बहस हुईं और उन्होंने कहा कि हम ऐसे असहाय भगवान की उपासना नहीं करना चाहते है। एक छोटी सी घटना ने उनको बहुत बड़ा आघात पहुंचाया तथा उस घटना ने उनके जीवन को प्रभावित किया।

 जीवन क्या है? मृत्यु क्या है? इन सवालों के जबाब जानने के लिए किसी महात्मा से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ऐसा उन्होंने अनुभव किया और उन्होंने ज्ञान प्राप्ति के लिए 21 साल उम्र में ग्रह का त्याग कर दिया और सन्यास ग्रहण कर लिया।

 उनके माता-पिता उनकी शादी करना चाहते थे लेकिन मूल शंकर शादी के बंधन में नहीं बंधना नहीं चाहते थे। और अंत में सन्यास का मार्ग का चयन किय। वे सन्यासी की तरह जीवन जीने लगे।

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 गुरु बिरजानंद से भेट

स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने गृह त्याग करने के पश्चात कठोर साधना एवं ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु की तलाश में निकल पड़े और अनेक प्रकार के योगियों,साधु-संतों एवं महात्मा से मिले और उनके मन की जिज्ञासा समाप्त नहीं हुई। बद्रीनाथ, केदारनाथ,हरिद्वार आदि जैसे पवित्र धार्मिक स्थलों का भ्रमण करते रहे।

 उनके भ्रमण समय ही उनकी मुलाकात मथुरा में  महान योगी,परम ज्ञानी एवं महान संत विरजानंद जी से हुई। स्वामी दयानंद सरस्वती गुरु बिरजानंदजी जी की बुद्धिमत्ता एवं विद्वानता से अत्यधिक प्रभावित हुये और उन्होंने अपना बिरजानंद जी को गुरु रूप में स्वीकार कर लिया अर्थात गुरु बना लिया।

 लगभग उन्होंने 35 वर्ष की उम्र में ही स्वामी बिरजानंद जी से सभी एवं उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। अपनी शिक्षा दीक्षा पूर्ण हो जाने के बाद उन्होंने गुरु के आदेशानुसार देश में फैली अज्ञानता को दूर करने के उद्देश्य से भ्रमण करने लगे। 

 आर्य समाज की स्थापना

 स्वामी दयानंद सरस्वती जी महान राष्ट्र भक्त एवं समाज सुधारक थे। स्वामी जी धर्म के प्रचार प्रसार में यात्रा के क्रम में अक्टूबर 1874 में मुंबई पहुंचे और 10 अप्रैल 1875 में मुंबई के डॉक्टर मानिक चंद्र की बाटिका चिरगांव में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की।

इसके लगभग 2 वर्ष बाद लाहौर में 1877 में आर्य समाज की स्थापना हुई और इसके कुछ समय बाद दिल्ली में आर्य समाज की स्थापना हुई। इस प्रकार से आर्य समाज विधान बनकर देश विभिन्न भागों में आर्य समाज की अनेक शाखाएं स्वत: विकसित होने लगी अर्थात स्थापित होने लगी।

 एक तरफ स्वामी जी का ध्यान आर्य समाज की और केंद्रित था और दूसरी ओर उनका ध्यान वैदिक संस्कृति पर केंद्रित था। स्वामी दयानंद सरस्वती हिंदू धर्म के रक्षक थे। आर्य समाज आंदोलन भारत के बढ़ते पश्चात प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। उन्होंने वेदों की ओर लौटने का नारा भी दिया था।

 आर्य समाज के द्वारा ही उन्होंने हिंदुओं में एकता प्रदान करने का प्रयास किया। भारतीय संस्कृति को बनाए रखने में स्वामी दयानंद सरस्वती का महत्वपूर्ण योगदान था। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने निम्न प्रकार की कुरीतियों का विरोध किया है जिनमें कुछ इस प्रकार है।

 सती प्रथा का विरोध

 स्वामी दयानंद सरस्वती के समय सती प्रथा की परंपरा थी। इस परंपरा के अंतर्गत अगर किसी महिला के पति का देहांत हो जाता है तो उसके पश्चात उस महिला को पति के साथ सती होना पड़ता था।

 इस प्रथा को रोकने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने अनेक प्रयास किए अथवा उन्होंने इसका विरोध किया। सभी को जीने के अधिकार को बताया। परोपकार की भावना का पाठ पढ़ाया।

 विधवा पुनर्विवाह

 स्वामी दयानंद सरस्वती के कोई भी महिला पति की मृत्यु के बाद दोबारा विवाह नहीं कर सकती थी। इस प्रकार की परंपरा का उस समय चलन बहुत था। जिसका जिसका विरोध स्वामी जी ने किया और पुनर्विवाह पर जोर दिया।

 नारी शिक्षा एवं समानता

 स्वामी दयानंद सरस्वती जी के समय नारियों को समानता एवं शिक्षा का अधिकार नहीं था। स्वामी जी का मानना था कि नारियों को भी समानता एवं शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए।

क्योंकि नारी समाज का आधार है नारी के द्वारा ही परिवार का सही से संचालन हो पाता है। नारीयों की शिक्षा एवं समानता के लिए बहुत प्रयास किये।

 बाल विवाह का विरोध

 इस प्रथा का स्वामी दयानंद सरस्वती के समय बहुत ही चलन था जिसके कारण सभी लोग इसका अनुसरण करते थे। इस प्रथा के कारण कई महिलाएं कम उम्र में ही विधवा हो जाती थी। जिसके कारण विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी। इस प्रथा को रोकने के लिए स्वामी जी ने अनेक प्रयास किये तथा बाल विवाह का विरोध किया।

 मृत्यु

 स्वामी जी 17 मई 1883 ई.को जोधपुर पहुंचे जोधपुर की नरेश जसवंत सिंह के दरबार में से षड्यंत्रकारियों द्वारा उन्हें भोजन में जहर देकर मारने का प्रयास किया गया। जिसने स्वामी जी के खाने में जहर मिलाया था उन्होंने उसको माफ कर दिया। और उनका धीरे-धीरे स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया।

 जिसके कारण 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर राजस्थान में मृत्यु हो गई। स्वामी जी जनमानस के दिलों में सदा सदा के लिए अमर हो गये। हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने वाले पहले व्यक्ति थे। जिनके अथक प्रयास द्वारा ही आज देश में हिंदी राष्ट्रभाषा है। स्वामी जी सदा सदा के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बन गये।