अरंडी की उत्पादन तकनीक 2023

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अरंडी की उत्पादन तकनीक

अरंडी की उत्पादन तकनीक 2023

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 अरंडी एक तिलहनी फसल है। इसका तेल महंगा और मूल्यवान होता है। जिसके कारण इसका तेल तिलहनी फसलों में विशेष महत्वपूर्ण स्थान होता है।

अरंडी की उत्पादन तकनीक 2023

हालांकि इसके तेल का उपयोग खाने के लिए नहीं किया जाता किंतु अरंडी के तेल का उपयोग विभिन्न प्रकार के सामान बनाने के लिए उपयोग किया जाता है, जैसे कि इसका तेल दबायें, डाई, डिटर्जेंट, प्लास्टिक, छपाई की से स्याही, पेंट्स, मरहम, पालिश,लेदर, फर्श का पेंट, लुब्रिकेंट आदि चीजें बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।

 इसकी पत्तियों को रेशम के कीड़े भोजन के रूप में खाने के लिए ग्रहण करते हैं। और अपना जीवन यापन करते हैं। भारत दुनिया का सबसे ज्यादा अरंडी पैदा करने वाला देश है। भारत में इसका उत्पादन  गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में होता है।

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इसकी खेती मक्का तथा ज्वार के साथ मैड़ों पर लाइन में की जाती है। इसका उत्पादन भारत में कई एकड़ की जमीन में किया जाता है। इसका उत्पादन और अधिक धीरे-धीरे  बढ़ रहा है।

 जलवायु

 अरंडी की फसल में जलवायु का विशेष महत्व है। अरंडी की फसल के उत्पादन के दौरान फसल की वृद्धि के संपूर्ण काल के दौरान घर गर्म, शुष्क एवं अल्प मौसम की आवश्यकता होती है।

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इसकी खेती 50 से 75 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा वाले स्थानों पर सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसके पूरे मौसम में 20 डिग्री सेंटीमीटर से  27 सेंटीमीटर तापक्रम की आवश्यकता होती है। पौधों की वृद्धि के समय तथा बीज पकने के समय उच्च तापक्रम की तथा फूल आते  समय अपेक्षाकृत कम तापक्रम की आवश्यकता होती है।

 कम वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती करना बहुत कठिन होता है क्योंकि इसकी खेती माध्यम वर्षा वाले क्षेत्रों में करना अधिक लाभदायक है। कम वर्षा एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती बहुत ही कम मात्रा में की जाती है। क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में इसकी पैदावार बहुत कम होती है। इसकी खेती में जलवायु का अधिक प्रभाव पड़ता है।

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अरंडी की उत्पादन तकनीक 2023
अरंडी की उत्पादन तकनीक

 भूमि

 उत्तरी भारत में अरंडी की खेती एल्युवियल तथा दक्षिणी भारत में लेटराइट मृदा पर खेती की जाती है। इसके लिए सामान्यत: हल्की और भुर भुरी मृदा उपयुक्त रहती है।

 बुवाई

 सिंचित दशा में बौनी किस्म को 60X45 सेंटीमीटर की दूरी पर बोना चाहिए। असिंचित दशा में बौनी की किस्मों की बुवाई 90×45 सेंटीमीटर की दूरी पर बोना चाहिए।

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 डिबलिंग से बुवाई हेतु 8 से 10 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। इस विधि से बुवाई करने से सही तरीके से होती है और लगभग सभी बीज सही से उगते है।

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 पोषण प्रबंधन

 जैविक खाद

 अरंडी की फसल के लिए अधिक मात्रा में उत्पादन के लिए जैविक खाद का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि जैविक खाद से मृदा की उपजाऊ परत बनी रहती है। जिससे इस फसल की अच्छी पैदावार होती है।

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अरंडी की फसल में तेल की मात्रा बढ़ाने और गुणों को अच्छा बनाने के लिए 10 से 15 टन गोबर खाद प्रति हेक्टर तथा 8 से 10 क्विंटल माइक्रो नीम ऑर्गेनिक मैन्योर प्रती हेक्टेयर देना चाहिये। जैविक खाद भूमि की उर्वरा शक्ति बनाए रखता है और जैविक खाद जमीन में नमी बनाये रखता है। जिससे अरंडी 

के उत्पादन में वृद्धि होती है।

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 रासायनिक खाद

 अच्छी पैदावार लेने हेतु 60 से 90 किलोग्राम नत्रजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस तथा 15 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय तथा नत्रजन की से शेष आधी मात्रा खड़ी फसल में निदाई गुड़ाई के समय देना चाहिये।

 सिंचाई

 बुवाई के समय मृदा में नमी होना आवश्यक है। इसकी जड़े अधिक गहरे से भी नमी का उपयोग कर लेती हैं। अत: इसकी खेती असिंचित क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है।

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अच्छी उपज के लिये 2 से 3 सिंचाई करनी चाहिये। फूल आने की अवस्था में खेत में नमी होना आवश्यक है। जिससे अच्छी पैदावार की जा सके। इसलिए इसकी खेती के लिए सिंचाई का होना आवश्यक है।

 खरपतवार नियंत्रण

 खरपतवार नियंत्रण के लिए समय-समय पर निदाई गुड़ाई करते रहना चाहिये। बुवाई के तीन सप्ताह निदाई गुड़ाई करना अति आवश्यक है तथा उसी समय पौधों की दूरी ठीक कर देना चाहिये और एक जगह पर एक ही पौधा रखना चाहिये।

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अंकुरण पूर्व एलाक्लोर 1 से 1.5 किलोग्राम, मेटोलाक्लोर 1 से 1.5 किलोग्राम, पेण्डी मैथलीन 1.5 से 2 लीटर आदि में से किसी भी एक का प्रयोग करके खरपतवार को सफलतापूर्वक नियंत्रण किया जा सकता है।

 प्रमुख किस्में

अरुणा

 यह किस्म 120 से 135 दिन में पक्कर तैयार हो जाती है। इसकी लगभग उपज क्षमता 20 से 25 क्विंटल है।

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 भाग्य

 यह 120 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 20 से 25 क्विंटल है। यह जैसिड एवं सफेद मक्खी कीट के प्रति संवेदनशील है।

 सौभाग्य

 यह 180 से 185 दिन में पककर तैयार हो जाती है। एवं इसकी उपज क्षमता 20 से 25 क्विंटल है। एवं तेल की मात्रा 51 से 52 प्रतिशत है।

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 रोजी 

 यह 195 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 20 से क्विंटल है। एवं तेल की मात्रा 50 प्रतिशत है।

 गिरजा

 यह कम अवधि की किस्म है। यह 110 से 120 दिन में पहली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 20 क्विंटल है।

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 पौधों का संरक्षण

 अरंडी की फसल को निम्नलिखित और कीटों एवं विमारियों से हानि पहुंचती है-

 कीट

 अरंडी की अर्ध गोलाकार इल्ली

 इस कीट की इल्ली अवस्था हानिकारक है। ये पत्तियों की मध्य शिरा एवं पर्णवृंत को छोड़कर संपूर्ण पत्ती को खा जाती है। इससे पौधे का ढांचा मात्र ही रह जाता है।

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 अरंडी की रोमिल इल्ली

इस कीट की इल्लिया पतियों को खाकर इतना नुकसान पहुंचाती हैं कि केवल जाला ही शेष रह जाता है। पौधे की वृद्धि रुक जाती हैं।

 कीट प्रबंधन

  •  इन कीटों के नियंत्रण के लिए नीम की पत्तियों का घोल 25 किलोग्राम प्रीति हेक्टेयर के मान से छिड़काव प्रारंभिक अवस्था में करें।
  •  रासायनिक कीटनाशक जैसे प्रोफनोफास 50 ई.सी. या क्लोपायरिफास 20 ई.सी. को 1से 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।

 रोग प्रबंधन

 पौध अंगमारी एवं पर्ण चित्ती रोग

 प्रारंभ में पत्तियों पर छोटे-छोटे धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के बड़े धब्बों में बदल जाते हैं, इसके नियंत्रण हेतु मेंकोजेव 75 डब्ल्यूपी की 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से रोग प्रकोप कम हो जाता है।

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 कटाई एवं गहराई

 अरंडी फसल की बुवाई के 60 से 70 दिन बाद फल जाते हैं, जो कि 2 से 3 माह तक लगातार आते रहते हैं। इसकी फसल एक साथ नहीं पकती है। सामान्यता: फसल की प्रथम तुड़ाई 90-110 दिन पश्चात करें।

इसके पश्चात 20 दिन के अंतराल पर दो से तीन तुड़ाइयां की जाती हैं। इसके बाद थ्रेसिंग की जाती है। थ्रेसिंग के बाद दाने तथा छिलकों को साफ करके अलग कर लिया जाता है।

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उपज एवं भंडारण

 आधुनिक पद्धति द्वारा उन्नत किस्मों से 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज प्राप्त किये जा सकते हैं। इसके बीज का आवरण (seed coat) कडा होने के कारण इसका भंडारण 3 वर्ष तक बिना किसी हानि के किया जा सकता है।

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